The Making of Pahadi Ghee
जानिए कैसे तैयार होता है उत्तराखंड का पारंपरिक Pahadi Ghee?
जड़ी-बूटियों का पोषण: बद्री गाय और प्राकृतिक चराई
पहाड़ी घी की शुद्धता की कहानी किसी मशीन से नहीं, बल्कि पहाड़ों के ऊंचे बुग्यालों (meadows) से शुरू होती है। यहाँ की स्थानीय गायें, जिन्हें 'बद्री गाय' भी कहा जाता है, किसी शेड में बंधकर चारा नहीं खातीं। वे दिन भर खुले जंगलों और ढलानों पर चरती हैं, जहां वे विशेष औषधीय जड़ी-बूटियां और ताजी घास खाती हैं। इस प्राकृतिक आहार के कारण उनके दूध में 'A2 प्रोटीन' और औषधीय गुण आ जाते हैं। यही कारण है कि पहाड़ी घी का रंग, स्वाद और पोषण मैदानी इलाकों के घी से बिल्कुल अलग और श्रेष्ठ होता है।
असली तरीका: हाथ से बिलोना और धीमी आंच पर पकाना
लेकिन सफर यहीं खत्म नहीं होता। इस सफेद मक्खन को असली 'गोल्डन घी' बनाने के लिए उसे लोहे की कढ़ाही में लकड़ी के चूल्हे पर चढ़ाया जाता है। यहाँ सबसे बड़ा खेल 'धीमी आंच' का है। मक्खन को तेज आग पर फटाफट उबालने के बजाय, उसे मंद आंच पर घंटों तक धीरे-धीरे पकाया जाता है। इसे 'स्लो कुकिंग' कहते हैं। जैसे-जैसे मक्खन धीरे-धीरे पिघलता है, उसका पानी भाप बनकर उड़ जाता है और घी का रंग गहरा सुनहरा होने लगता है। इसी धीमी आंच की वजह से घी में वो खास 'दानेदार' (Granular) टेक्सचर आता है और एक ऐसी सोंधी खुशबू (Nutty Aroma) पैदा होती है जो किसी भी खाने का स्वाद बदल दे। यह तरीका सुनिश्चित करता है कि घी के विटामिन्स और गुड फैट्स जलकर खराब न हों, बल्कि सुरक्षित रहें।
पूजा से लेकर रसोई तक, शुद्धता का प्रतीक
चाहे घर में कोई मांगलिक कार्य हो, सत्यनारायण की कथा हो, या फिर दीवाली का दिया जलाना हो—पहाड़ी घी के बिना कोई भी अनुष्ठान पूरा नहीं माना जाता। हवन कुंड में जब यह शुद्ध घी डाला जाता है, तो उससे निकलने वाला धुआं न केवल वातावरण को शुद्ध करता है, बल्कि मन को भी शांति प्रदान करता है। स्थानीय त्योहारों में, जैसे कि 'फुलदेई' या 'हरेला', पारंपरिक पकवान बनाने के लिए इसी घी का उपयोग अनिवार्य है क्योंकि इसे देवताओं का भोजन (नैवेद्य) माना जाता है।
